Saturday, June 23, 2012

टूटी हुई बिखरी हुई चाय - साभार: शमशेर बहादुर राणा

टूटी हुई बिखरी हुई चाय
की दली हुई पांव के नीचे
पत्तियां
मेरी कविता

बाल झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए गर्दन से फिर भी
चिपके
....कुछ ऐसी मेरी खाल
मुझसे अलग सी, मिट्टी में
मिली -सी

दोपहर-बाद की धुप-छाओं में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ ...
खाली बोरे सूजों से रफ़ू किये जा रहे हैं....
जो मेरी आँखों का सूनापन हैं

ठण्ड भी मुस्कराहट लिए हुए है
जो की मेरी दोस्त है |

कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई...
मैं समझ ना सका, रदीफ़ काफिए क्या थे
इतना खफिफ़, इतना हल्का, इतना मीठा
उनका दर्द था |

आसमान में गंगा की रेत आइने की तरह हिल रही है |
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं...
ना जाने कहाँ |

मेरी बांसुरी है एक नाव की पतवार-
जिसके स्वर गीले हो गए हैं
छप छप छप मेरा ह्रदय कर रहा है
छप.छप छप |

वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारने वाला है |
वह दूकान मैंने खोली है जहाँ  "प्वाइज़न" का लेबुल लिए हुए
दवाइयां हँसती हैं -
उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है |

वह मुझ पर हंस रही है, जो मेरे होठों पर तलुए
के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय  के बारीक तारों की तरह
खुरच रहे हैं

उसके चुम्बन की स्पष्ट परछाइयाँ मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुह को कुचल चुकी हैं
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है |

मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ |
मुझको सूरज की किरणों में जलने दो -
ताकि उसकी आंच और लपट में तुम
फौव्वारों की तरह नाचो |

मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो
ताकि  उनकी दबी हुई खुश्बू से अपने पलकों की
उनिन्दी जलन को तुम भिगा सको, मुमकिन है तो |
हां, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें
सवाल करती हैं बार - बार .... मेरे दिल के
अनगिनत कमरों से

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
....जिनमें वो फंसने नहीं आती
जैसे हवाएं मेरे सीने से करती हैं
जिसको गहरे तक दबा नहीं पाती
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ

आइनों, रोशनी में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो |
आइनों, मुस्कुराओ और मुझे मार डालो |
आइनों, मैं तुम्हारी ज़िन्दगी हूँ

उसमें काटें नहीं थे - सिर्फ एक बहुत
काली, बहुत लम्बी जुल्फ थी जो ज़मीन तक
साया किये हुए थी.... जहाँ मेरे पांव
खो गए थे |

वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक ज़िन्दा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा |

और तब मैंने देखा की मैं सिर्फ एक साँस हूँ जो उसकी
बूंदों में बस गयी है
जो तुम्हारे सीनों में फांस की तरह ख्वाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी

मैं उसके पाओं पर कोई सज़दा ना बन सका
क्यूंकि मेरे झुकते ना झुकते
उसके पांव की दिशा मेरी आँखों को लेकर
खो गई थी |

जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफाफा 
तुम्हारे हाथ आया
बहुत उल्टा-पल्टा - उसमें कुछ ना था -
तुमने उसे फेक दिया - तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें 'मैं"  लगा | तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीँ छोड़ दिया | मैं तुमसे
यों ही मिल लिया

मेरी कविता की तुमने खूब दाद दी  - मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सूना रहे हो | तुमने मेरी
कविता की खूब दाद दी

तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया:
और जब लपेट ना खुले - तुमने मुझे जला दिया |
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे: और वह
मुझे अच्छा लगता रहा |

एक खुश्बू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गई है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्ही-सी
स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी सी, तिरछी स्पेलिंग,

आह, तुम्हारे दाँतों से  जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है |

अगर मुझे किसी से इर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार बार हर घंटे लेता जाता:
पर मैं तो इसी शरीर में अमर हूँ
तुम्हारी बरकत

बहुत से तीर, बहुत सी नावें, बहुत से पर इधर
उड़ते हुए आये, घूमते हुए गुज़र गए
मुझको लिए सबके सब | तुमने समझा
की उनमें तुम थे | नहीं, नहीं, नहीं |
उनमें कोई ना था | सिर्फ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं | फ़क़त |

2 comments:

sanjeet said...

nice one sir...

VISEN said...

KYA BAAT HAI................... KAHAN THE AB TAK