Saturday, November 9, 2013

स्मृति शेष - १


इस बार बहुत सालों बाद, छठ पर घर होना था, जैसा कि शुरुआत कह रही है,  मैं घर नहीं गया। रविश जी कि छठ रपट पढ़ रहा हूँ, और छठ गीत सुन कर संगीत रस ले रहा हूँ। पूजा के गीत में संगीत!!!  
बाप बेटे का पहला झगड़ा था, बेटे ने धर्म, मंत्र और कर्मकाण्डों को ढकोसला बताया था। पर बेटे के चिर प्रतिद्वंदी (परन्तु प्रचलन अनुसार कमज़ोर माने जाने वाले) पिता ने बड़े प्यार से पूछा - विज्ञान तो मानते हो, या नहीं?

हर ध्वनि संगीत है, और हर संगीत ध्वनि है, ऊर्जा है। और यह हवा में ३३० मीटर/सेकण्ड कि रफ्तार से चलती है। चूँकि ना हम इसे पैदा कर सकते हैं और ना ही नष्ट कर सकते हैं, तो अगर एक ही आवाज़ मैं बार बार करूँ तो क्या होगा? E = M C स्क्वायर तो मानोगे, पहली बार निरुत्तर हुआ मैं, परन्तु ना मैंने जवानी के जोश में हार मानी, ना ही उन्होंने अपने विश्वास के पुल पर कोई आंच आने दी। परन्तु कभी भी नास्तिक होने से नहीं रोका।   

बंगाली मित्रों के सम्पर्क में आने के पहली बार बीरेन्द्र कृष्ण भद्र कृत महालय सुना। फिर एक नास्तिक ने पहली बार एक हिन्दी भाषी आस्तिक के लिये उपहार में बांग्ला प्रभावित, बीरेन्द्र कृष्ण भद्र कृत महालय की कैसेट उपहार में दी। उसको सुनते हुए उनकी आखों से आंसु गिरते देख पूछा "समझ में आ रहा है क्या?" पिताजी ने कहा "तुम संवेदना, भावना को भी नास्तिक-आस्तिक के लिए अलग अलग परिभाषित कर सकते हो क्या? पिता जी को गुजरे आज ४५ दिन होने को आये, बेमौसम महालय सुनाने के बाद, दो आंसू मेरी आँखों में हैं - आप भी सुनियेमहालय: बीरेन्द्र कृष्ण भद्र