Tuesday, January 26, 2016

गणतन्त्र



गणतन्त्र की दहलीज़
चमकते पत्थरों की
जिस पर
भूख की परछाईं भी थर थराती है
रक्त अपना रंग खो देता है

बचपन तिरंगे बेचकर
भविष्य रफ़ू करता है

और मुश्ताक़ अली अंसारी ६ दिसम्बर १९९२ से
मुस्लिम मुहल्ले की गलियों से बचकर निकलते हैं
क्या करें वो
पूरे हिन्दू लगते हैं
भूख
ख़ून
इन्सानियत को थर्रा देने वाली
गणतन्त्र की दहलीज़
बिछ जाती है
धर्म के आगे

नुस्खा



उसकी ज़ुबान एक पंखे से
झूल गई
उसकी आवाज़ को न सुनने वाले
जात ज़रूर समझते हैं
रंग से पहचानते हैं
धर्म के राज्य में
उसे जूतियों में रखते हैं
इन जूतियों में
पुश्तों के बेगार की चमक है
जेठ की धूप
माघ का जाड़ा है
और मकई के भात भर की भूख
त्योहार के कपड़ों भर की लाज
अपने पैरों के निशान मिटाने वाली पवित्रता
और वो सबकुछ भी जिसने
उनका रंग बदल दिया/जात नहीं
उसे इन्सान बनाये रखने के लिये
किफ़ायती, ईश्वरीय दिव्यता से युक्त
वैदिक नुस्खा

रोहित वेमुला: ६७वां गणतन्त्र दिवस


तेरी आवाज़
सूरज की तरह
आसमान का अन्धेरा काट देगी

तेरे गीत
परिन्दों की तरह
क्षितिज के पार तक जाएंगे
बिना किसी रोक के

मौसम बदलेंगे
साज़ मचलेंगे
और वेमुला की कहानी धुनों में सहेजकर
बचा लेंगे
आने वाली पीढ़ियों के लिये
वह विद्रोह की कविता
नया वेद है
इसे 
ख़ून, या 
ग़ुलामी की नहीं
विमर्श की की सिंचाई चाहिये

साज़ों से निकली धुन
तुम्हारे गीतों के साथ
मनुस्मृति दहन करेगी 
दूसरे किसी भी रोहित वेमुला को
महान गणतन्त्र के पंखे से लटकने नहीं देगी

अन्त में




जो बचा रहा
अन्त में
वही श्रेष्ठ है
इसलिये
इतिहास का हर क्रूरतम किरदार
जीतकर अहिंसक हो गया

हिंसा की जीत
गद्दी पर बने रहने के लिये ज़रूरी
अहिंसा के मुखौटे की बीच
रक्त का स्वाद पाने को लालायित
श्रेष्ठ
बच गये

गणतन्त्र